शुक्रवार, 31 जुलाई 2015

अलविदा रास्तों

बचपन का घर छूटा जब , दिल को मालूम था कि इन मायके की तरफ जाते हुये रास्तों से अब आगे गुजरना मुमकिन न हो पायेगा.....

अलविदा रास्तों , पेड़-पौधों , गाँव-शहरों और रेलवे-लाइन 
अलविदा इन रास्तों के माइल-स्टोन्स को भी 
ये बाईपास , ये शुगर-मिल , रेलवे-स्टेशन , पुलिस-थाना 
ये चौराहा , बेकरी , राइट-टर्न , एक लेफ्ट टर्न 
गली , मन्दिर और फिर ये मेरा घर 
जाने कितनी ही बार यहीं खड़े होकर देखा था 
खेतों के बीच से गुजरती हुई रेलगाड़ी को ,
हाथ हिलाती हुई सी मैं नन्हीं बच्ची 
आज अधेड़ बन उसी जगह से शून्य की तरफ निहारती हुई 
कितना कुछ गुजर गया आँखों के आगे से 
घर के अन्दर मुड़ी तो .... 
ये मेरी अल्मारी , यहाँ किताबें , यहाँ कपड़े, यहाँ बिस्तर 
यहाँ बरामदे में माँ बैठी दिखाई देतीं थीं 
यहाँ पिताजी कुछ बीमार से जान पड़ते थे 
आखिरी बार नजर भर कर देख लूँ 
एक एक कमरा , दीवार पर टंगे हार चढ़े माँ पिताजी के फोटो फ़्रेम्ज को भी 
अलविदा मेरे घर , अब तुमसे दुबारा मिल न पायेंगे 
अलविदा  , अलविदा 




शुक्रवार, 17 जुलाई 2015

अब कौन समझने वाला है

क्या कहिए अब इस हालत में ,
अब कौन समझने वाला है

कश्ती है बीच समन्दर में
तूफाँ से पड़ा यूँ पाला है

हम ऐसे नहीं थे हरगिज़ भी
हालात ने हमको ढाला है

कह देतीं आँखें सब कुछ ही
जुबाँ पर बेशक इक ताला है

लौट आते परिन्दे जा जा कर
घर में कोई चाहने वाला है

बाँधने से नहीं बँधता कोई
आशना क्या गड़बड़ झाला है

ज़ेहन में उग आते काँटे
ये रोग हमारा पाला है

घूम आते हैं अक्सर हम भी
वक्त की 
तलियों में छाला है

नजरें फेरे हम जाप रहे
बाँधे आसों की माला है