बुधवार, 29 अप्रैल 2009

सुनहरी रँग


अन्धेरे में चलना किसे रास आता, कुछ ऐसी रोशनी मुहैय्या करा दो


अन्गनें में खड़ा सूरज , अँखियों पे पड़ा पर्दा हटा दो


अँधेरा नहीं है जीवन की डोरी ,उजली किरण ही है आशा की लोरी


ठण्डी हवाओं को आने की दावत , सावन की पेंगें बढ़ा दो


बेलगाम पानी क्यों बहे नालियों में ,मेढों को बांधों खेतों को सजा दो


जड़ों में पानी डालो,सूखी टहनियों पे भी हरे पत्ते सजा लो


सावन- भादों के आने की देरी, फूलों के खिलने में फ़िर क्या है देरी


देखा है फूलों को टकटकी लगाये ,सूरज सँग सोते सूरज सँग जगते


क्या है ये नाता धरती और सूरज का ,जीवन और किरण का ,


मन को समझा दो


सुनहरी रंग किसे नहीं भाता ,खप जाता है हर रँग सँग ,सबसे मुखर होकर,


ये ख़ुद को सिखा दो

बुधवार, 22 अप्रैल 2009

सुबह की चाय का प्याला

सुबह की चाय का प्याला पी लो

तेरे मेरे साथ की चाह का प्याला पी लो

खुशनुमा सुबह के अहसास का प्याला पी लो

सूरज उगता है बस तेरे लिए

मौके , हिम्मत और उम्मीद लिए

ये सौगात है बस तेरे लिए

लपको , पकडो हर उस बात को पी लो

सुबह की चाय का प्याला पी लो

अपने हिस्से की हर बात को जी लो

रविवार, 19 अप्रैल 2009

दिल जले या दिया

रात को गहराते देख रही हूँ
सुबह को उतरते देख रही हूँ
सुबह की पदचाप
इतनी चुपचाप क्यों है
उजाले की झन्कार क्यों खो गई है
सबेरे की आह्ट का जो नशा है
उसमें अपनी भी सुधबुध रहती नहीं है
जमीं से जुड़े हैं रात दिन के असर से
कितनी चुप्पी है , शोर तो बहुत है
अंधेरे में सब कुछ दिखता है काला
इस रँग पे कोई रँग चढ़ता नहीं है
रँगराज भी है भूला
चिराग जलाए बिना
कोई रँग दिखता नहीं है
उजाला मोहताज है रोशनी का
दिल जले या दिया
अपने अपने सफर की ये खुशकिस्मती है

बुधवार, 8 अप्रैल 2009

दूरियाँ किलोमीटर्स


७-अप्रैल-०९


बड़ी बेटी को बेंगलोर छोड़ कर घर पहुँची , सब कुछ वैसा ही था , छोटी बेटी घर पर परीक्षा की तैयारी के लिए आई हुई थी , पतिदेव अपनी सेमिनार के लिए मुम्बई जाने के लिए तैयार थे , बाकी सब कुछ वैसा ही था , पर मन कहीं छूट गया था , बस बेचैनी थी | काश ...इस काश के आगे तो बहुत कुछ लिखा जा सकता है पर मैनें अपने मन को बेलगाम चलने की आज्ञा नहीं दी हुई है .....और काश के आगे की सब बातें तभी सम्भव हैं जब ऊपर वाला उन्हें जायज और सहज बनाये | ऑन्लाइन बड़ी बेटी से बात की .....फोटो देखकर कहा कि ' लग रहा है गेस्ट रूम के उसी कमरे में हो आई हूँ .....तुम्हारी आवाज सुनकर .....उबासी लेती हुई तुम ....तुमसे मिल आई हूँ | '


बेटी ने कहा ' कौन कहता है दूरियाँ किलोमीटर्स में होती हैं


हम तो नजदीकियाँ दिल से देखते हैं '


मैनें कहा ' वाह वाह , लिखती तो तुम थीं पर शायरा कब से हो गईं ? '


उसने कहा ' हेरिडिट्री प्रॉब्लम है ' और हम दोनों हा हा कर हँस उठे |


फिर उसने कहा ' ममा रात को कभी उदास नहीं सोना चाहिए ' |


और मैनें कहा ' तो आज के लिए इतना काफी है .....तुम मुस्कुराती रहो मैं मीलों खुश चलूँगी '


दोनों ने एक दूसरे को गुड नाईट कहा | अपने निजी पलों को लेखनी के साथ बाँट रही हूँ .....देखो मेरी लेखनी भी मुस्करा उठी | [:)]

उस अजनबी शहर में


६ अप्रैल ०९


नारियल के ऊँचें-ऊँचें पेड़ , कॉपर युक्त मिट्टी के आयताकार खेत , आस पास छितराये से घर और कहीं कहीं पत्थर के पहाड़ .....सिलिकोन सिटी या आई टी सिटी के नाम से मशहूर ये शहर ... जैसे ही प्लेन के पहियों ने बेंगलोर की धरती छोड़ी .....दिल जो पक्का किया हुआ था अचानक बैठने लगा .....पौने तीन घंटे की उड़ान और हजारों मील पीछे छूट जायेगा मेरे जिगर का टुकडा |


बेटी पहली बार इतनी दूर रहने नहीं आई थी , मगर पिछले सवा साल से वो इतनी पास आ गई थी कि हम कई बार मिले | कहते हैं हम दूसरे को नहीं अपने सुखों को रोते हैं ,तो इसे क्या कहूँ , अपने बच्चों को जल्दी जल्दी देख पाने के सुख से वंचित हो गई हूँ | तीनों बच्चे उडे तो एक ही डाल पर बैठ गये ....बस कभी वो हमारी तरफ आते और कभी हम उनसे मिलने जाते पर अब ये बड़ी चिड़िया ने लम्बी उडारी भर ली |


मैं क्यों अपनी संवेदनाओं की बेडियाँ बच्चों के पैरों में डालूँ | अकेले छोड़ आने का अहसास तो तीन दिन पहले दोनों को हो गया था ..जब बेंगलोर में मेरे छह दिन के प्रवास में आधे दिन बीत जाने पर उल्टी गिनती का अहसास हो गया था | लाख रोकने पर भी आँखें छल-छला आईं | जब मन चतुराई करे तो मन को आत्मा की राह दिखानी पड़ती है वरना मन नहीं मानेगा और जब मन हाथ पैर छोड़ दे तो उसे बाहर की राह यानि दुनिया की राह दिखानी पड़ती है , अब सोचना ये था कि सफलता की सीढियां ऐसे ही चढ़ी जाती हैं ....मैं कोई अकेली माँ नहीं हूँ जिसने अपने बच्चों को दूर भेजा है ...ये दुनिया का दस्तूर है ..वगैरह ....वगैरह ...| आँख खोल कर आस पास देखा , एक लेडी अपनी छह महीने की पोती के साथ अकेले श्रीनगर तक की यात्रा के लिये मेरी साथ वाली सीट पर बैठी हैं | ये एक हौपिंग फ्लाईट थी .., शायद उन्हें मेरी मदद की जरुरत थी ....उन्हें बच्ची के लिये दूध बनाना था ....आगे बढ़ कर मैंने बच्ची को उठा लिया | इस तरह कुछ बात शुरू हो गई और उन्होंने बताया कि श्रीनगर में उनका घर और बिजनेस है और बहू वहीं इंजीनियरिंग की परीक्षा देने गई हुई है , और वो खुद पोती के साथ सर्दी भर अपने छोटे बेटे के पास बेंगलोर रहीं थीं , अब बच्चों को यानि बेटे बहू को अपनी बच्ची की याद सता रही है इसलिए वो उसे लेकर लौट रहीं हैं | बच्ची को उन्होंने सोने की चूड़ियाँ पहना रखीं थीं , यानि बच्ची चाँदी के चम्मच के साथ पैदा हुई थी | वो बता रहीं थीं कि जब वो पैदा हुई तो बहुत कमजोर थी , उन्होंने व् उसके डॉक्टर ने बहुत मेहनत करके उसे स्वस्थ्य बनाया है | नई और पुरानी संस्कृति का मेल कुछ इस तरह देखकर अच्छा लगा | और मैंने देखा कि मेरा मन लग रहा है , सचमुच बाहर की दुनिया से तालमेल बैठाए बिना हम चल नहीं सकते , तो मन को बाहर की राह दिखा दे वरना मन अड़ जायेगा | कुछ देर के लिये बच्ची सो गई फिर मैं अपनी बेटी की याद में डूब गई | ये कुछ पंक्तियाँ तो मन पहले से ही गुनगुना रहा था .....


मेरे जिगर के टुकड़े


उस अजनबी शहर में


अकेला नहीं है तू


तेरे आस पास


मेरी दुआओं का घेरा है


जब जब अकेले होना


झुक के तू झाँकना दिल में


अन्दर कहीं हूँ मैं भी


मुड़ के तू देखना पीछे


तेरे साथ-साथ हूँ मैं


तेरे आगे आगे


उजाले की रोशनी है


बस वहीं वहीं


मेरा दिल धड़कता है


खुदा करे


कि तुझे झुक कर , मुड़ कर


देखना पड़े


उजाले हों इतने बिखरे


एक तू और दूसरे उजाले


अकेला कहाँ है तू



गुरुवार, 2 अप्रैल 2009

ऊँगली छुड़ाई


माँ ने जब जब ऊँगली छुड़ाई


क़दमों का दम देखा


पीठ मोड़ी जब जब


हौसलों का दम देखा


नजर झुकाई जब जब


तेरा ही तो गम देखा


हाथ उठाये जब जब


दुआओं का दम देखा