बुधवार, 22 सितंबर 2021

पितृपक्ष

क्या कहें ,

वो अपने बड़े प्यारे थे , जो आज दीवार पर हैं फोटो फ़्रेमस में जड़े हुए 

हम जी रहे हैं उन्हीं गलियों के उजाले लिए हुए 


वो दे गए हमें मन भरहम अर्पण कर रहे कण भर  

गाय , कौआ ,कुत्ता , चींटी , जीम लें स्वीकारते हुए 


उनकी फुलवारी के फूल हैं , जहाँ तक नज़र जाती है 

उनकी दुआओं ने बुने थे आसमानहम उसी छत के नीचे हैं खड़े हुए 


श्राद्ध के दिन आते हैं वो भाव से पृथ्वी पर 

श्रद्धा के सुमन अर्पित हैं , ग्रहण कर लें वो आशीष देते हुए 

बुधवार, 8 सितंबर 2021

मेरी कविताएँ

 

मैं और मेरी कविताएँ 
अक्सर बतियाते रहते हैं 
वो कहती हैं ,हम जन्मीं थीं 
जब तुम हार गईं थीं दुनिया से 

घबरा कर अपने अन्तस में लौटीं थीं 
वो भाव तुम्हारे पन्नों पर  
क़दमों में तुम्हारा दम बन कर 
हम हस्ताक्षर सी मौजूद रहेंगी 

जब-जब तुम छूट गईं अकेले 
हमने पकड़ी उँगली ,इक आस जगाई 
हम रहीं तुम्हारे साथ चन्दा ,सूरज ,तारे महकाने 
तुम अपनी कल्पना शक्ति के रँग भरतीं 

तुम्हारी हर ख़ुशी में साथ तुम्हारे 
सिर चढ़ कर हम ही बोलें 
नन्हें बच्चों सी दुलारी हम 
परछाईं सी तुम्हें प्यारी हम 

हर रँग उकेरा है हमने 
हम करुण रस ,हम वीर रस 
हम दावानल ,हम श्रृंगार रस 
हम ही भक्ति ,हम ही शक्ति 

सोते-जगते तेरे साथ खड़े 
तन्हा न कभी छोड़ा हमने 
मौन तुम्हारी ज़ुबाँ बन कर 
अक्षर-अक्षर हम उत्तरी हैं 

मैं बोली तुम मेरी प्राण-शक्ति 
लिखती न मैं तो क्या होता 
रफ़्तार ज़माने की देखी 
रुक गई थी मैं ठिठकी-ठिठकी 

विरह में कोई अलख है 
ठोकरों में है कोई सीख 
ख़ुशी में भी झन्कार है 
जो तू देख सके तो ,जुदा एक सँसार है