शुक्रवार, 12 सितंबर 2025

कल ही

कल ही मैंने उस याद के पन्ने फाड़े हैं 

बहुत बोझ हो जाता है माज़ी पर

जो वज़ूद पे भारी हो 

उसे फाड़ के रद्दी कर दो 


कल ही मुहब्बत यहाँ पानी पीने आई थी 

मैंने बेरुख़ी से मुँह मोड़ लिया 

मेरी सारी नमी सोख लेती 

और मुझे निचोड़ के रख देती 


आदमी से ज़्यादा नाशुक्रा कोई नहीं 

जिस थाली में खाता है , उसी में छेद कर देता है 

कल ही जो बहुत करीबी था 

आज वही बेगानों की भीड़ में नज़र आता है 


साबुत बचे रहने की ख़ातिर 

तम्बू तानने की जद्दोज़हद में 

पैबन्द सारे छीज गये 

हम जो हैं सामने हैं 

कोई पैरहन न रहा 

ज़रूरत भी नहीं है 

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