कल ही मैंने उस याद के पन्ने फाड़े हैं
बहुत बोझ हो जाता है माज़ी पर
जो वज़ूद पे भारी हो
उसे फाड़ के रद्दी कर दो
कल ही मुहब्बत यहाँ पानी पीने आई थी
मैंने बेरुख़ी से मुँह मोड़ लिया
मेरी सारी नमी सोख लेती
और मुझे निचोड़ के रख देती
आदमी से ज़्यादा नाशुक्रा कोई नहीं
जिस थाली में खाता है , उसी में छेद कर देता है
कल ही जो बहुत करीबी था
आज वही बेगानों की भीड़ में नज़र आता है
साबुत बचे रहने की ख़ातिर
तम्बू तानने की जद्दोज़हद में
पैबन्द सारे छीज गये
हम जो हैं सामने हैं
कोई पैरहन न रहा
ज़रूरत भी नहीं है
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