शनिवार, 21 मार्च 2015

नया साल है , नई बात हो

आओ हम इक दीप जलाएँ 
अँधियारे को दूर भगाएँ 

नया साल है , नई बात हो 
एक नई उम्मीद जगाएँ 

मन मैले को खूब बुहारें 
दम भर को फिर हम सुस्ताएँ 

खिली धूप हो हर चेहरे पर 
ऐसा कुछ हम भी कर जाएँ 

आज जो हमने बोया है ,कल काटेंगे 
दूर की कौड़ी हम भी ले आएँ 

कतार दियों की ऐसी हो रौशन 
मन  और प्राण से हम मुस्काएँ 

बुझ न जाये कहीं कोई दिल 
उसको भी हम गले लगाएँ 

खिड़-खिड़ हँसती रात दिवाली 
जीवन में हम ऐसी पाएँ 

दूर खड़ा मुस्काता सूरज 
कोई किरण तो हम भी चुराएँ 

दम कदमों में भर दे जो 
ऐसी कोई अलख जगाएँ 

गुम हैं हम तो खुद में देखो 
दायरा अपना कुछ तो बढ़ाएँ 

नाम किसी सफ़्हे पर आये 
ऐसा कुछ हम भी कर जाएँ 



मंगलवार, 3 मार्च 2015

मिट्टी में तेरा मान रे

अज्ञान ,अशिक्षा ,अविवेक ने , मन पे रक्खी न लगाम रे
अपने ही हाथों अपनी ही दुनिया का ,कर डाला काम तमाम रे

चरस ,गाँजा ,सिगरेट ,शराब , दाँव पे तेरी सेहत रे
तन-मन धन सब होगा अर्पण , गड्ढे में तेरी जान रे

चुग जायेगी चिड़िया तेरा ,सारा खेत ये जान रे
गुजरा वक़्त नहीं है आता , भर नहीं पाते निशान रे

ज़मीर सदा धिक्कारेगा तुझको ,अपने चुरायेंगे आँख रे
पीढ़ियाँ रोयेंगी नाम को तेरे ,मिट्टी में तेरा मान रे

होते हैं नियम कायदे-कानून , समाज नहीं है जँगल रे
पहुँच गया है आदमी चाँद पे ,उलझा है किसमें 
तू नादान रे 

रक्षक ही बन बैठा जब भक्षक ,विष्वास का है ये खून रे 
रिश्तों की खोद डाली जड़ें हैं ,ये तो बता ये जन्म तेरा ,आया है किस काम रे 

सोमवार, 16 फ़रवरी 2015

तक रहीं हैं दाएँ-बाएँ

बेटे के फिलीपींस जाने के बाद अगली सुबह उसके कमरे में जाने पर मेरी संवेदनाओं ने जो लिखा.....

तुम्हारे जाने के बाद
एक सन्नाटा सा पसरा है
तुम्हारा शेविंग ब्रश , तुम्हारी कँघी
और वाश-बेसिन पर रखीं न जाने कितनी चीजें 
तक रहीं हैं दाएँ-बाएँ
तुम्हारा इन्तजार करतीं हुईं सी लगतीं हैं
तुमने ये कहा
"न संभालना मेरा कब्बर्ड , मेरे जाने के बाद "
मुझे पता है के तुम चाहते हो
माँ ज्यादा काम न करे
पता है मुझे ये भी के तुम बड़े हो गये हो
तुम्हारे अन्तरंग पलों में मुझे झाँकना नहीं है
तुम्हें स्पेस चाहिये
ये भी पता है के किसे बुरा लगता है ,
जो बिछाये बैठा हो कोई सेज फूलों की उसके लिये
दुआएँ मेरी तो सदा गीत गाती ही मिलेंगी
दूर महके तेरा चमन बेशक
चीजें तो बेजान हैं ,
फिर भी बोलती हुईं सी लगतीं हैं
नाप लो चाहे तुम दुनिया सारी
माँ की दुनिया तो आबाद है
अब भी तुम्हारे बचपन के नन्हें क़दमों से
किसने जाना था
कि गुजरा हुआ इक-इक लम्हा मायने रखता है
गुजर जाने के बाद

बुधवार, 4 फ़रवरी 2015

मँहगाई कैसे न बढ़े

राशन की दुकानों में ' ए ग्रेड ' की जगह ' बी ग्रेड ' का माल बिका 
खानसामों ने अपने खाने के बहाने , अपने पूरे घर का पेट भरा 
तत्काल की सुविधा भी एजेन्टस के हाथ हुई 
हर जगह धाँधली ,मिलावट , मुनाफा-खोरी 
हर किसी ने किया ,जिसका जितना दाँव लगा 
सूद-खोरों , दलालों , कमीशन-खोरों की चाँदी हुई 
मिलावटी खाना , मिलावटी बातें ,मिलावटी ज़ेहन 
कहीँ से इँच भर भी तू खालिस न हुआ 
दौड़ता फिरता है किसके पीछे 
सोने सा जनम पा के भी मिट्टी ही किया 
मध्यस्थता खरीद-फरोख्त की प्रक्रिया को आसान बनाने के लिये थी 
भारत की अर्थव्यवस्था ये किसके हाथ हुई 
कुकुर-मुत्तों की तरह उगे बिचौलिओं की परसेन्टेज अनलिमिटेड और बन्दर-बाँट की तरह हुई 
मँहगाई कैसे न बढ़े , मँहगाई कैसे न बढ़े 

बुधवार, 28 जनवरी 2015

इसी खिड़की से


इसी खिड़की से बाहर देख-देख कर ,
कितना मैंने अन्दर झाँका 
हिलती धरती , पाँव बहकते ,
एक फलक मैंने अन्दर टाँका 

ऊँचे पहाड़ों से घिरी झील है 
बहती नावें , महज़ दृश्य है 
नजर ही भरती रँग नज़ारों में 
लेखनी ने ये जग से बाँटा 

ले जायें किस मोड़ पे ये 
दृश्यों को कब टिकते पाया 
रिश्तों तक को रँग बदलते पाया 
झोली में जो शेष रहेगा 
ज़िन्दगी ने वो खुद से छाँटा 

मन के आँगन में एक है खिड़की 
धूप कभी सहला जाती है 
छाया का मन बहला जाती है 
राहों में गर फूल खिले हों 
कौन भला चुनता है काँटा 



शुक्रवार, 16 जनवरी 2015

हवाओं के रुख को

वक़्त मेरी धज्जियाँ उड़ाता ही रहा 
मैं शब भर चिन्दी-चिन्दी बटोरती रही 

टूटे सपनों की किर्चें , धज्जी-धज्जी 
मैं दम भर  लम्हा-लम्हा जोड़ती रही 

चल रहा है हर कोई मंजिल की तरफ 
ये और बात है के ज़िन्दगी ही रुख मोड़ती रही 

ये मेरा अपना आप है , उधेडूं या सिलूँ 
सीवनें ,सलवटें ,बखिये , जोड़ती रही 

रेत के टीले , धँसते पाँव ,सहरा का सफर 
मैं माथे से हरदम पसीना पोंछती रही 

मेरा वज़ूद तक है छितराया हुआ 
हवाओं के रुख को सलाम ठोकती रही 

ये मेरा जलावतन है या अहले-चमन 
ज़िन्दगी के ताने-बाने का सूत अटेरती रही 


मंगलवार, 6 जनवरी 2015

कतरा भी समन्दर ही है

मैं इसी भीड़ का हिस्सा हूँ 
वही पुराना कोई किस्सा हूँ 
चाहता तो हूँ मैं भी अगली पंक्ति में होना 
पहचान मगर कहाँ किसी आँख में उभरी 

पीछे मुड़ कर देखूँ , बहुत से लोग हैं मेरी ही तरह  
जो लोग चढ़े हैं फलक पे ,मेरे जैसों का हाल क्या जानेंगे 
शायद ये फासले जरुरी हैं ,इन्तिजमात के लिए 
आज उसका है तो कल मेरा भी तो हो सकता है 
खुशफहमियों में मैं सबसे आगे बैठा हूँ 

कतरा भी समन्दर ही है ,ये जाना मैंने 
ज़िन्दगी का सलीका है पहचाना मैंने 
तन्हा ही रहा तो खुश्क हो जाऊँगा 
वक्त की धूप में उड़ा भी तो , सबके साथ बादल सा बरस जाऊँगा