गुरुवार, 21 जुलाई 2022

माँ आ खड़ी होती हैं

 माँ आ खड़ी होती हैं अक्सर बेटियों के आड़े वक्त में , जब दुनिया से चली गईं हों तब भी 

वही जो ठण्डी छाँव बन कर संभालती हैं 

वही गाहे-ब-गाहे थोड़ी-थोड़ी सख़्त बातें भी खेल-खेल में सिखला जाती हैं 

माँ को याद करती हूँ 

जब कोई उम्मीदों पर खरा न उतरता तो माँ कहतीं ‘ऐन्हा तिलाँ विच्च तेल नहीं ‘( इन तिलों में तेल नहीं है)

जब सब कुछ नियंत्रण से बाहर होता तो कहतीं ‘ जिहदे हत्थ मधाणी , ओ कमली वी स्याणी ‘

यानि जिसके क़ाबू में सब कुछ हो वही पूजा जाता है 

तुम कर्म को क़िस्मत कहतीं 

तकलीफ़ में चट्टान सी खड़ीं रहतीं 


हर माँ की तरह तुमने सदा चाहा कि मैं दुनिया के कदम से कदम मिला के चलूँ 

जो तुम्हारे लिये मुमकिन न हुआ वो भी मुझे हासिल हो 

मेरी उपलब्धियों की नींव में तुम ही हो माँ 

मेरे थोड़े-बहुत सब्र में , मेरी व्यवहारिकता में तुम ही तो आ खड़ी होती हो माँ थोड़ा-थोड़ा 

मेरे तुम्हारे रोग़ भी कुछ एक से हैं 

रातों को उठ-उठ पानी पीती हूँ घूँट-घूँट 

भोर भी होगी कभी ,पीती हूँ ये यक़ीं भी घूँट-घूँट 

कई बार यूँ लगता है आपके और दीदी के जाने के बाद कोई मातृछाया सा हाथ सिर पर नहीं रहा 

मगर तुम तो इस तरह चल रही हो मेरे साथ कि तुम्हारी बातें अक्सर मुझे सुनाई देती हैं 

बोल तुम्हारे हैं और ज़ुबाँ मेरी है 

अब भी मेरे आड़े वक्त में आ खड़ी होती हो 

और संभालती हो मुझे , माँ 

4 टिप्‍पणियां:

  1. नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा शुक्रवार 22 जुलाई 2022 को 'झूला डालें कहाँ आज हम, पेड़ कट गये बाग के' (चर्चा अंक 4498) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है। 12:01 AM के बाद आपकी प्रस्तुति ब्लॉग 'चर्चामंच' पर उपलब्ध होगी।

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  2. माँ ठंडी छाँव सी ही तो होती है ही कहा वो तो हर वक्त साथ होती है
    बहुत ही हृदयस्पर्शी संस्मरण ।

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  3. अद्भुत संवेदनशील सच्ची अभिव्यक्ति ।
    बहुत कुछ कह दिया । आँचल भीग गया ।

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आपके सुझावों , भर्त्सना और हौसला अफजाई का स्वागत है