शुक्रवार, 3 सितंबर 2010

पाकीज़गी हमारी खुराक है

पहले आप , पहले आप वाले देश में ; मैं ही मैं , मैं ही मैं होने लगी

वो भी चलें , हम भी चलें , क्या सब साथ चल सकते नहीं

ऊपर वाला हर उस दिल में रहता है , जहाँ फर्क किया जाता नहीं

वो मौजूद है कण-कण में , फिर भी हम उसे देख पाते नहीं

हम उसे महसूस करते हैं , प्रार्थनाओं में , इबादत में

मन्दिर हो कि मस्जिद हो ,दुआओं को उठे हाथों में

हिन्दू करता है साक्षात्कार परमात्मा का

मुस्लिम करता है दीदार अल्लाह का

एक ही नूर है , तरीके उस तक पहुँचने के जुदा-जुदा हैं

इन्सानियत का धर्म है सब से बड़ा , खुद चलो औरों को भी चलने की जगह दे दो

इतिहास नहीं बख्शेगा , लाशों के दिलों पर जो लिखने चले हो तुम

पाकीज़गी हमारी खुराक है , कुछ खाना मन को भी दे दो , इन्सान बने रहने दो

लम्हों ने खता की , सदियों ने सजा पाई ; जुनूनों ने की गलती , निर्दोषों ने सजा पाई

इतना सामान सर पर इकट्ठा मत करो , कि टूटे रीढ़ की हड्डी , पीढ़ियों को बोझा ढोना पड़े

चलने की जगह हो , उड़ने को कहाँ जाएँ

3 टिप्‍पणियां:

  1. इन्सानियत का धर्म है सब से बड़ा , खुद चलो औरों को भी चलने की जगह दे दो...
    शिक्षक दिवस पर इतना बड़ा संदेश...
    शारदा जी, इस रचना के माध्यम से...
    समाज के लिए...
    एकता और भाईचारे का संदेश देती...
    आपकी भावनाओं को सलाम...

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  2. pakizgi hmari khurak hai
    kuchh khana hmko bhi de do
    sharda ji
    iske aage duniya ke sare khjane khali hai . kvita me dharmik sdbhavna bhut khoobsurti se ubhri hai .achchha lga .

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