मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

सलवट-सलवट चेहरा


झुर्री-झुर्री हाथ हुए हैं ,सलवट-सलवट चेहरा 

खो ही गया वो नन्हा बच्चा,

बड़ा हुआ था पहन के जो 

अरमानों का सेहरा 


एक-एक कर कहाँ गये वो उम्र के सारे चोंचले

रहे न काम के , बदला रंग-ढंग वक्त का चेहरा-मोहरा 


आ ही गए हैं यहाँ तलक तो 

हार के भी हम जीते समझो 

बतियाता है कानों में मेरे 

वही सलोना चेहरा 


भरी दोपहरी सर पर गुजरी 

फिर भी देखो सीना नम है 

यही हमारा दम-खम है 

राज यही है गहरा 


5 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना ब्लॉग "पांच लिंकों का आनन्द" बुधवार 30अप्रैल को साझा की गयी है......... पाँच लिंकों का आनन्द पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. पोस्ट में सम्मिलित करने का बहुत बहुत शुक्रिया

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  2. समय की धारा बहती रहती है, बसंत के बाद पतझड़ को आना ही है

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आपके सुझावों , भर्त्सना और हौसला अफजाई का स्वागत है