शुक्रवार, 12 सितंबर 2025

कल ही

कल ही मैंने उस याद के पन्ने फाड़े हैं 

बहुत बोझ हो जाता है माज़ी पर

जो वज़ूद पे भारी हो 

उसे फाड़ के रद्दी कर दो 


कल ही मुहब्बत यहाँ पानी पीने आई थी 

मैंने बेरुख़ी से मुँह मोड़ लिया 

मेरी सारी नमी सोख लेती 

और मुझे निचोड़ के रख देती 


आदमी से ज़्यादा नाशुक्रा कोई नहीं 

जिस थाली में खाता है , उसी में छेद कर देता है 

कल ही जो बहुत करीबी था 

आज वही बेगानों की भीड़ में नज़र आता है 


साबुत बचे रहने की ख़ातिर 

तम्बू तानने की जद्दोज़हद में 

पैबन्द सारे छीज गये 

हम जो हैं सामने हैं 

कोई पैरहन न रहा 

ज़रूरत भी नहीं है 

बुधवार, 16 जुलाई 2025

दिल में इक अलख

अपने टूटे टुकड़े बटोर के रखती हूँ 

मैं हर सुबह कुछ जोड़ के रखती हूँ 


मेरी लेखनी को बीमारी है सच बोलने की 

मैं अपनी सोच संभाल के रखती हूँ 


लम्बी दूरी है तय करनी 

सफ़र में कुछ छाँव जोड़ के रखती हूँ 


छूते ही बिखर न जाऊँ कहीं 

ख़ुद को ही झिंझोड़ के रखती हूँ 


सुबह ख्यालों में हैं 

मैं तह-दर-तह ,ईंट-ईंट चिन के रखती हूँ 


कर्ज रिश्तों का भी है 

ताने-बाने का सूत अटेर के रखती हूँ 


कुछ तो सालिम रहे मुझ में मेरा 

दिल में इक अलख जगा के रखती हूँ 

मंगलवार, 29 अप्रैल 2025

सलवट-सलवट चेहरा


झुर्री-झुर्री हाथ हुए हैं ,सलवट-सलवट चेहरा 

खो ही गया वो नन्हा बच्चा,

बड़ा हुआ था पहन के जो 

अरमानों का सेहरा 


एक-एक कर कहाँ गये वो उम्र के सारे चोंचले

रहे न काम के , बदला रंग-ढंग वक्त का चेहरा-मोहरा 


आ ही गए हैं यहाँ तलक तो 

हार के भी हम जीते समझो 

बतियाता है कानों में मेरे 

वही सलोना चेहरा 


भरी दोपहरी सर पर गुजरी 

फिर भी देखो सीना नम है 

यही हमारा दम-खम है 

राज यही है गहरा 


रविवार, 30 मार्च 2025

दरो-दीवार बोलते ही रहे

दरो-दीवार बोलते ही रहे 

हमने कान ही  रखे 

सखी-सहेलियों के प्यार ने खींचा भी बहुत 

हमने ही मुँह फेर लिया 

चलना आगे है तो पीछे मुड़ के क्या देखें 


जो राह हो महफ़ूज़ अक़्लमन्दी है उसी पर चलना 

हर ठोकर पे हँस के सँभाल लें जो हाथ हमें 

उनका साथ ही दौलत है हमारी 


अब ये हाथ बूढ़े हो चले हैं 

उम्र का ये ही हश्र होना था 

आहिस्ता-आहिस्ता दस्तक देती रही 

और हम अनसुनी करते ही रहे 


दिल के फ़ैसलों पर दिमाग भारी है 

कुदरत के साथ क़िस्मत की भी साझेदारी है  

सखी सहेलियाँ , वो अपनी सी डगर , जाने-पहचाने रास्ते करते रहे सरगोशियाँ दिल में 

मगर हम मुँह फेरे चलते ही रहे 

हमने कान ही  रखे 

 

शनिवार, 15 मार्च 2025

दिल बाग-बाग है

दिल बाग-बाग है 

घर बाग-बाग है 

आने से तुम्हारे ये फ़िज़ाँ सब्ज़-बाग है 


दिल की भाषा दिल ही समझता है 

फूल खिलते हैं तो दिल गुनगुनाता है ,आँखें मुस्कुराती हैं 

आने से तुम्हारे ये जहाँ ख़्वाब-ख़्वाब है 


लौट आये हैं वही दिन लड़कपन के 

भूले-बिसरे वही नग़मे हैं हर मन के , अपनेपन के 

आने से तुम्हारे अँगना में उतरा महताब है 


तुम  कर चले भी गये 

वक्त गुजरा कि उड़ा , खबर ही नहीं 

पलक झपकी तो जाना कि मुठ्ठी में बस इतना सा ही असबाब है