शनिवार, 15 मार्च 2025

दिल बाग-बाग है

दिल बाग-बाग है 

घर बाग-बाग है 

आने से तुम्हारे ये फ़िज़ाँ सब्ज़-बाग है 


दिल की भाषा दिल ही समझता है 

फूल खिलते हैं तो दिल गुनगुनाता है ,आँखें मुस्कुराती हैं 

आने से तुम्हारे ये जहाँ ख़्वाब-ख़्वाब है 


लौट आये हैं वही दिन लड़कपन के 

भूले-बिसरे वही नग़मे हैं हर मन के , अपनेपन के 

आने से तुम्हारे अँगना में उतरा महताब है 


तुम  कर चले भी गये 

वक्त गुजरा कि उड़ा , खबर ही नहीं 

पलक झपकी तो जाना कि मुठ्ठी में बस इतना सा ही असबाब है 

1 टिप्पणी:

  1. बेहद खूबसूरत रचना पेश की है!
    बड़े दिनों बाद ब्लॉग पे आनेका मौक़ा मिला!

    जवाब देंहटाएं

आपके सुझावों , भर्त्सना और हौसला अफजाई का स्वागत है