बड़ी तपस्या पर निकले हो
लेश मात्र भी रोष न करना
अपने हिस्से की छाया पर
सब्र और सन्तोष तुम करना
सुख की दौड़ , मन भरमाती है
दुख के तराजू पे खरे उतरना
छूटती साँसें , डूबती उम्मीद
कोई तो अलख जगा के रखना
होता है कोई तो रिश्ता
दर्द की जुबाँ को तुम समझना
अपना-अपना जोग यही है
काँटों पर चल ,है पार उतरना
आहुति माँगे ,अक्सर ज़िन्दगी
रो-के हँस के , हवन है करना
गुजरा हद से दर्द भी देखो
अपना क़र्ज़ आप है भरना
लेश मात्र भी रोष न करना
अपने हिस्से की छाया पर
सब्र और सन्तोष तुम करना
सुख की दौड़ , मन भरमाती है
दुख के तराजू पे खरे उतरना
छूटती साँसें , डूबती उम्मीद
कोई तो अलख जगा के रखना
होता है कोई तो रिश्ता
दर्द की जुबाँ को तुम समझना
अपना-अपना जोग यही है
काँटों पर चल ,है पार उतरना
आहुति माँगे ,अक्सर ज़िन्दगी
रो-के हँस के , हवन है करना
गुजरा हद से दर्द भी देखो
अपना क़र्ज़ आप है भरना
आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (21.11.2014) को "इंसान का विश्वास " (चर्चा अंक-1804)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, चर्चा मंच पर आपका स्वागत है।
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