रविवार, 30 मार्च 2025

दरो-दीवार बोलते ही रहे

दरो-दीवार बोलते ही रहे 

हमने कान ही  रखे 

सखी-सहेलियों के प्यार ने खींचा भी बहुत 

हमने ही मुँह फेर लिया 

चलना आगे है तो पीछे मुड़ के क्या देखें 


जो राह हो महफ़ूज़ अक़्लमन्दी है उसी पर चलना 

हर ठोकर पे हँस के सँभाल लें जो हाथ हमें 

उनका साथ ही दौलत है हमारी 


अब ये हाथ बूढ़े हो चले हैं 

उम्र का ये ही हश्र होना था 

आहिस्ता-आहिस्ता दस्तक देती रही 

और हम अनसुनी करते ही रहे 


दिल के फ़ैसलों पर दिमाग भारी है 

कुदरत के साथ क़िस्मत की भी साझेदारी है  

सखी सहेलियाँ , वो अपनी सी डगर , जाने-पहचाने रास्ते करते रहे सरगोशियाँ दिल में 

मगर हम मुँह फेरे चलते ही रहे 

हमने कान ही  रखे 

 

शनिवार, 15 मार्च 2025

दिल बाग-बाग है

दिल बाग-बाग है 

घर बाग-बाग है 

आने से तुम्हारे ये फ़िज़ाँ सब्ज़-बाग है 


दिल की भाषा दिल ही समझता है 

फूल खिलते हैं तो दिल गुनगुनाता है ,आँखें मुस्कुराती हैं 

आने से तुम्हारे ये जहाँ ख़्वाब-ख़्वाब है 


लौट आये हैं वही दिन लड़कपन के 

भूले-बिसरे वही नग़मे हैं हर मन के , अपनेपन के 

आने से तुम्हारे अँगना में उतरा महताब है 


तुम  कर चले भी गये 

वक्त गुजरा कि उड़ा , खबर ही नहीं 

पलक झपकी तो जाना कि मुठ्ठी में बस इतना सा ही असबाब है 

शनिवार, 28 दिसंबर 2024

गुम हो गये सफ़हे

गुम हो गये सफ़हे 

वक्त की किताब से 

ढूँढे से नहीं मिलते 

वो जो लोग थे नायाब से 


आब तो थी 

लश्करे-आफ़ताब सी 

ओझल हो गया वही चमन 

जिसकी तहरीर थी ख़्वाब सी 


वक्त के सीने पर 

उनके हस्ताक्षर तो मौजूद रहेंगे 

कोई सनद तो शेष रहे 

इस ज़मीं पर इंतिख़ाब सी

मंगलवार, 1 अक्टूबर 2024

A visit to Frankfurt


अभी मैं तुम्हारे शहर से गई नहीं हूँ 
अभी तो मैं बाक़ी हूँ उन अहसासों में 
अभी तो सुनाई देती है मुझे गोयथे यूनिवर्सिटेट और तुम्हारे घर के बीच की सड़क पर हवा को चीरती हुईं गाड़ियों की सरसराहट भी 
अभी तो दिखाई देता है गोयथे की साइड वॉल पर लिखा हेर्ज़िलिख विल्कोमेन भी (herzilich willkomen हार्दिक स्वागत )
तुम्हारे घर ,घर का इण्टीरियर , रास्ते , तुम्हारे शहर के स्टेशन सब मुझे याद हैं , जिन्हें मैंने आँख भर कर देखा 
क़ैद हो गए वो मेरे ज़हन के कैमरे में 
यूँ लगता था कि जैसे इस जनम में दुबारा वहाँ आना हो , न हो 
मन अपनी नाज़ुक उँगलियों से पकड़ लेता है वो सब भी जो है अनकहा , अनछुआ सा 
तुम्हारा शहर मुझे इक बार फिर से पटरी पर ले आया है 
अभी तो ताजा हैं तुम्हारी जादू की झप्पियाँ 
अभी तुम्हारे शहर के क्रोसों ,आइसक्रीम ,फ़्लैमकुकेन और भुट्टों का स्वाद मेरी ज़ुबान से गया नहीं है 
और तुम्हारे बनाये ऐवकाडो डिप ,कॉफ़ी और सैलेडस भी ज़ुबान पर ही हैं 
वो सिर्फ़ स्वाद भर नहीं थे 
उनमें छिपा था मेरी पसन्द के और दुनिया भर के क्यूज़िंस हमें खिलाने का लगाव 
न ही गया है तुम्हारी आँखों में तिरते हुए विष्वास और प्यार का रंग 
अभी मैं तुम्हारे शहर से गई कहाँ हूँ !

सोमवार, 22 जुलाई 2024

माँ तुम अक्सर याद आती हो

माँ तुम अक्सर याद आती हो 

होती हूँ जब-जब निराशा के गर्त में 

तुम  कर सहला जाती हो 

कौन आस-पास घूमा करता है 

दुआएँ तुम्हारी मेरा माथा चूमा करती हैं 


माँ तुम सम्बल , माँ तुम धरती ,माँ तुम अम्बर

तुम होती हो आस-पास 

उस तपिश को क्या नाम दूँ 

एक उजास , एक छाँव आराम की ,

एक सुकून का पलनाबेफ़िक्री का आलम 


बस तुम्हारे बाद अब कहीं कोई गोद नहीं 

जहां मैं सर भी रख सकूँ 

फिर भी तुम ही तुम नज़र आती हो , मुझे मेरे बचपन से अब तक की हर सीढ़ी पर 

मेरे सपनों में आज भी जीती-जागती हू--हू नज़र आती हो 

माँ तुम अक्सर याद आती हो 

गुरुवार, 18 जुलाई 2024

बच्चों के दम पर

बच्चों के दम पर भी हम देखते हैं दुनिया 

ये कभी भी , कहीं भी ले चलते हैं 

कुछ भी ख़रीदवा देते हैं 

और हम जैसे अपने माँ-बाप की उसी छत्रछाया में पहुँच जाते हैं 

बचपन के वो नायाब से तोहफ़े , जहाँ वापसी के व्यवहार की कोई उम्मीद ही नहीं 

ये अचानक कोई हमें बेफ़िक्री की सी खुमारी में झुला जाता है 

हाथों से फिसलती हुई उम्र जैसे सुस्ता कर फिर से जी उठती है 

दिल में भरी हुई दुआएँ हैं , आँखों में जैसे एक बार फिर से सितारे टिमटिमा उठते हैं 

सीने में रुकी हुई रफ़्तार फिर से रवानी पा लेती है 

और ज़िन्दगी की दूसरी पारी हसीन हो उठती है 

रविवार, 21 जनवरी 2024

जीने का जज़्बा

अरमाँ की तरह जो संग चले 

बाहों में वो कुछ यूँ भर ले 

जैसे कोई अपना होता है 

जैसे कोई सपना होता है 

कानों में वो कुछ यूँ कहता 

धरती अपनी ,दुनिया अपनी 

मेरे संग खिले , मेरे संग जगे


जीवन की कोई परिभाषा 

कोई मापदण्ड होता है भला 

पकड़ो तो कोई ऐसी बात 

गुड़-चीनी की तो बात ही क्या 

मीठी सी खीर हो जैसे कोई 

भीनी सी ख़ुशबू संग लिए 

दिन-रात पगे ,हर पल महके