दरो-दीवार बोलते ही रहे
हमने कान ही न रखे
सखी-सहेलियों के प्यार ने खींचा भी बहुत
हमने ही मुँह फेर लिया
चलना आगे है तो पीछे मुड़ के क्या देखें
जो राह हो महफ़ूज़ अक़्लमन्दी है उसी पर चलना
हर ठोकर पे हँस के सँभाल लें जो हाथ हमें
उनका साथ ही दौलत है हमारी
अब ये हाथ बूढ़े हो चले हैं
उम्र का ये ही हश्र होना था
आहिस्ता-आहिस्ता दस्तक देती रही
और हम अनसुनी करते ही रहे
दिल के फ़ैसलों पर दिमाग भारी है
कुदरत के साथ क़िस्मत की भी साझेदारी है
सखी सहेलियाँ , वो अपनी सी डगर , जाने-पहचाने रास्ते करते रहे सरगोशियाँ दिल में
मगर हम मुँह फेरे चलते ही रहे
हमने कान ही न रखे