शनिवार, 18 जुलाई 2020

मौत से रू-ब-रू

जब हम रू-ब-रू हो कर आते हैं मौत से
जैसे बुझती हुई सी लौ दिप से जल उठती है सीने में
ज़िन्दगी कुछ इस तरह मेहरबान हुई सी लगती है
वो पेड़-पौधों की मूक जुबानें ,वो लम्हें ,वो सारे जरिये
बोलते हुए से लगते हैं
हाँ कह डाले हम सब कुछ दुनिया से
वो कड़ियाँ जोड़ते हैं
ज़िन्दगी के सजदे में ज़िन्दगी का रुख ही मोड़ते हैं

हर कोई नहीं होता इतना खुशनसीब
हर किसी की राह में फूल ही बिछे हुए नहीं होते
हर किसी के लिए दुआओं में उठे हुए हाथ भी नहीं होते
चलना पड़ता है अपने ही हौसले के दम पर
गर जली हो कोई शम्मा सीने में ,
जो बदल सके अँधेरे को उजाले में
उतनी ही रौशनी काफी है चलने के लिए

उन सारे लम्हों और जज़्बातों को सलाम
जो ले आये हैं किनारों पर ,भँवर के उन तूफानों को भी सलाम
ऐतबार  की कश्ती के उस मल्लाह को सलाम
मेहरबान हुई है ज़िन्दगी ,इसे फूलों सा सँभालो
जो सुख दे आँखों को और फिजां को भी महका दे
एक धागे का साथ जरुरी है
जलना शम्मा को अपने ही दम पड़े 

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