मंगलवार, 16 जून 2020

सुशांत सिंह : चकाचौंध और अँधेरा

कौन जाने , कौन कितना अकेला है 
भीड़ में भी तन्हां है, जिसके आस-पास रौशनी का मेला है 
इतनी चकाचौंध थी तो नाक के नीचे इतना अँधेरा क्यों ?
सलोने से चेहरों की उदास दास्तानें 
बुलन्दी पे पहुँचे हुए सितारों की टूटन 
 वो अकेलापन , वो घुटन 
क्यों उठा लेता है मन अनचीन्हा ? 
सवाल कई हैं , जवाब एक नहीं 

मासूमियत गई पानी भरने 
कँक्रीट के जँगल में दिल नहीं बसते 
उसके दिल से उठता धुआँ किसी को न दिखा 
ज़िन्दगी एक न्यामत है 
कहती है कि मैं बूँद हूँ बेशक ,
मगर सागर का अस्तित्व मुझसे है 
आसमान रो उठा है 
एक बार जो रूठी ज़िन्दगी , फिर वो सींची न गई 
फिर वो सींची न गई 



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