मंगलवार, 11 मई 2010

इतनी सी नमी

कागद काले हैं किये
या धड़कन को पिरोया साँसों में
नजर-नजर का फेर है
गीत बन जाते , शब्दों के हेर-फेर से
अजनबी से लगते हैं
दिल का साज छेड़ कर देखो
तराने बुनते हैं
सागर अँजुली में लिए
ये वो दोना है
पी ले तो अपना सा है
छूटे तो धरती पर बिखरे
कागद काले हैं किये
इसी के दम पे रात कटे
इसी के दम पे दिन की शुरुआत हो
नजर-नजर का फेर है
सँवर के आदमी इन्सान बने
आँधी-तूफ़ान को सहने में ,
बेलों के वजूद ही काम आये हैं
सहराँ में फूल खिलाने को ,
इतनी सी नमी से भी , आराम आये

4 टिप्‍पणियां:

  1. पहली बार आया आपके ब्लॉग पर ...बहुत सुन्दर और अच्छे शब्दों से सजी और गहरी रचना पढने को मिली कुछ प्रभावशाली पंक्तिया ये है

    सँवर के आदमी इन्सान बने
    आँधी-तूफ़ान को सहने में ,
    बेलों के वजूद ही काम आये हैं
    सहराँ में फूल खिलाने को ,
    इतनी सी नमी से भी , आराम आये

    http://athaah.blogspot.com/

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  2. कागद काले हैं किये
    या धड़कन को पिरोया साँसों में
    नजर-नजर का फेर है
    बिलकुल सच...ये नज़र नज़र का फेर ही है....ख़ूबसूरत रचना

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  3. अति सुंदर रचना के लिये धन्यवाद

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  4. आँधी-तूफ़ान को सहने में...
    बेलों के वजूद ही काम आये हैं.
    वाह....बहुत सुन्दर.

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