वो कुछ दिन रहे , रौनक रही
घर चहकता रहा ,ज़र्रा-ज़र्रा महकता रहा
न दिन की खबर रही न शाम की
बहारों का ही जलवा रहा
जाने से उनके कुछ दिन , दिल अनमना सा रहा
कहाँ मुमकिन है तगादा करना
जाना ज़रूरी ही रहा
हमें फख्र है जिसपे , वो आसमाँ उन्हें बुलाता ही रहा
हमने कब मौसमों से किये दिए रौशन
अपनों ने डाल दिया डेरा
दिल की बस्ती में ,फिर उजाला ही उजाला सा रहा
6 टिप्पणियां:
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार (२०-०१ -२०२२ ) को
'नवजात अर्चियाँ'(चर्चा अंक-४३१५) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बहुत खूब।
बहुत बहुत सुन्दर सराहनीय
बहुत बहुत धन्यवाद
बहुत सुंदर सृजन ।
गहन एहसासों से महकाती अभिव्यक्ति।
विरह में भी समर्पण के उत्कृष्ट भाव।
अप्रतिम सृजन।
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