बहुत छोटी सी थी जब वृन्दावन से गुरु जी हमारे घर आते थे ...उन्हीं ने सिखाया था कि सुबह उठते ही सबसे पहले दोनों हथेलियों को साथ साथ लाते हुए माथे से छुआते हुए , हथेली में विराजमान ब्रह्मा विष्णु महेश को प्रणाम करो , उसके बाद हथेली में ही विराजमान माँ सरस्वती और लक्ष्मी को प्रणाम करो और फिर धरती माँ का अभिवादन करो । इस प्रार्थना में कर्म और उगते सूरज को मैंने खुद-ब-खुद जोड़ लिया है । उगता सूरज यानि प्रकाश ...आशा ..उत्साह ..जो कि इस सारे ब्रह्माण्ड के गतिमान रहने की वजह है ।
तेरी गोदी से उठ कर माँ
नमन तुम्हें है , हे जग जननी
भार मेरा सहती जो निस दिन
नमन है धरती के कण कण को
नमन है ब्रह्मा विष्णु महेश को
सृजन , पालन और सँहार के उन नियमों को
बनते बिगड़ते सँसार के शाष्वत नियमों को
नमन है आने जाने की इस विधा को
नमन है माँ लक्ष्मी और सरस्वती को
सहज है जीवन और बुद्धि की व्याख्या तुम हो
जिनकी स्तुति में झुकता जग सारा
नमन है उनकी आशीषों को
तिल्सिम सी हैं अपनी रेखाएँ
नमन हथेली के कर्मों को
धो डाले जो वजूद मुश्किलों का
नमन है किस्मत के ताले की इस कुँजी को
नमन तुम्हें , ऐ उगते सूरज
मन और प्राण की भाषा तुम हो
तम है वहाँ पर जहाँ न तुम हो
दसों दिशाएँ गूँज रही हों
प्राण-शक्ति का अभिनन्दन है ...
मंगलवार, 28 फ़रवरी 2012
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
नमन तुम्हें , ऐ उगते सूरज
जवाब देंहटाएंमन और प्राण की भाषा तुम हो
तम है वहाँ पर जहाँ न तुम हो
दसों दिशाएँ गूँज रही हों
प्राण-शक्ति का अभिनन्दन है ...
Bahut,bahut sundar!
बहुत सुन्दर प्रार्थना है ... सूरज से तो ये श्रृष्टि भी चलायमान होती है तो इनसान यों नहीं ...
जवाब देंहटाएंनमन तुम्हें , ऐ उगते सूरज
जवाब देंहटाएंमन और प्राण की भाषा तुम हो
तम है वहाँ पर जहाँ न तुम हो
दसों दिशाएँ गूँज रही हों
प्राण-शक्ति का अभिनन्दन है ...
बड़ी ही सुंदर प्रार्थना !!
वातावरण को पवित्र करने वाली !!