सोमवार, 8 जून 2009

हथेलियों पे चला करती हैं


अपने दुःख सुख से अलग , अपने आप से परे खड़े होकर देखा तो जिन्दगी को ऐसा पाया


शबनम की बूँदों को
सँभाले हूँ हथेलियों पे
न ये फिसलें
ये ओझल हों , मेरी आँखों से |
न ये बिखरें , मेरे हिलने से |
न हों संभले तो
अनहोनी हो जायेगी |
जिन्दगी क्या ऐसी होती है !
जो ये निखरीं हैं , तो भीगी हूँ बारिश की फुहारों में
जो ये तपती हैं , तो तन्हाँ हूँ सहराँ के किनारों में
नूर की बूँदें हैं , हथेलियों पे चला करती हैं

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