बच्चों के दम पर भी हम देखते हैं दुनिया
ये कभी भी , कहीं भी ले चलते हैं
कुछ भी ख़रीदवा देते हैं
और हम जैसे अपने माँ-बाप की उसी छत्रछाया में पहुँच जाते हैं
बचपन के वो नायाब से तोहफ़े , जहाँ वापसी के व्यवहार की कोई उम्मीद ही नहीं
ये अचानक कोई हमें बेफ़िक्री की सी खुमारी में झुला जाता है
हाथों से फिसलती हुई उम्र जैसे सुस्ता कर फिर से जी उठती है
दिल में भरी हुई दुआएँ हैं , आँखों में जैसे एक बार फिर से सितारे टिमटिमा उठते हैं
सीने में रुकी हुई रफ़्तार फिर से रवानी पा लेती है
और ज़िन्दगी की दूसरी पारी हसीन हो उठती है
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आपके सुझावों , भर्त्सना और हौसला अफजाई का स्वागत है