समझा था जिसे छाया मैंने
वो तो बादल का टुकड़ा भर था
झीनी चदरिया तार-तार हुई
और तपता सूरज सर पर था
भरमों के बिना जीवन कैसा
अरमाँ का अपना भी कोई घर था
उम्रों से निरास निहाल हुई
अपनी कश्ती में कोई पर था
मिलते ही जगह भरने लगता
इक वहम का ऐसा भी सर था
टूटे जितना हम जुड़े मिले
चलना जो अपने दम पर था
सूरज उगता है बस तेरे लिए ....... मौके , हिम्मत और उम्मीद लिए ...... ये सौगात है बस तेरे लिए .....
मंगलवार, 29 नवंबर 2011
गुरुवार, 24 नवंबर 2011
उम्मीद के सूखे पत्ते
ज़िन्दगी जुए सी है
हाथ में आ जाएँ जो थोड़े इक्के
सलाम ठोकते हैं सारे पत्ते
उम्मीद के सूखे पत्ते
मय ज़र्द चेहरों के
बड़े बेमन से किये हैं अलग
ज़मीं गीली है अभी
मगर वो आबो-हवा नहीं है
रोज़ घटता बढ़ता है
उम्मीद का साया भी
चन्दा की ही तरह
कौन सी चीज है
जो अमर होती है
एक हमको ही न आया हुनर
ज़माने के साथ चलने का
या तो हम ही हैं हिले हुए
या फिर सारी दुनिया जा रही है
किसी और ही राह ...
कहने जो गये हम
तो सुनने वाला एक न मिला
लिखा जो हमने
सबको अपना ही हाल लगा
हाथ में आ जाएँ जो थोड़े इक्के
सलाम ठोकते हैं सारे पत्ते
उम्मीद के सूखे पत्ते
मय ज़र्द चेहरों के
बड़े बेमन से किये हैं अलग
ज़मीं गीली है अभी
मगर वो आबो-हवा नहीं है
रोज़ घटता बढ़ता है
उम्मीद का साया भी
चन्दा की ही तरह
कौन सी चीज है
जो अमर होती है
एक हमको ही न आया हुनर
ज़माने के साथ चलने का
या तो हम ही हैं हिले हुए
या फिर सारी दुनिया जा रही है
किसी और ही राह ...
कहने जो गये हम
तो सुनने वाला एक न मिला
लिखा जो हमने
सबको अपना ही हाल लगा
सोमवार, 14 नवंबर 2011
टिम टिम करते तारे
चौदह नवम्बर पर बच्चों के लिए
नन्हें बच्चे प्यारे
आँखों के दुलारे
झट से ये मुस्का देते हैं
रँग सारे बिखरा देते हैं
चन्दा मामा प्यारे
थक कर कभी न हारे
दूर खड़े मुस्काते हैं
हमको वही चलाते हैं
नन्हीं नन्हीं परियाँ
सँग जादू की छड़ियाँ
हिला हिला बिखरा देतीं हैं
सुख की सारी लड़ियाँ
टिम टिम करते तारे
नभ से उतरे सारे
गुरुवार, 3 नवंबर 2011
तुम्हारे जाने से
बच्चों के घर में कुछ दिन बिता कर जाने के बाद एक अजीब सी ख़ामोशी छा जाती है , जिसे शब्द दे पाना नामुमकिन सा है ...
तुम्हारे जाने से यूँ लगता है
बहार आने से पहले चली गई शायद
कौन जगायेगा मुझे नीँद से उँगली पकड़
कौन चलेगा मेरे साथ साथ शामो-सहर
स्याही बन कर वही बात कागज़ पर चली आई है
इक चुप सी लगी है , ये रुत दूर तलक छाई है
मुँह बिचकाती हुई घर की दीवारें हैं
समझाते हुए खुद को इक उम्र गुजरी है
उड़ना है बहुत दूर तक तुम्हारे पँखों से
नीँद आती भी नहीं , जगी भी नहीं हूँ
सारे सपने तुम साथ ले कर गए
तुम्हारे साथ था ये दिल लगा हुआ
और अब , दिल लगाना पड़ता है