सारी दुनिया ऐसी पाई
पल में तोला पल में माशा
कैसे करूँ पर्बत को राई
अपनी फितरत देख तमाशा
दिल अपना और प्रीत पराई
दर्द की अपनी ये ही भाषा
छोड़ चला कोई राजाई
किसी का खेल किसी की आशा
मन्जर गर नहीं सुखदाई
बातेँ छोटी भी सुख की परिभाषा
दुखती रगें भी तो दवाई
साथी कभी , है प्रेरणा निराशा
गुरुवार, 11 अगस्त 2011
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
Nice post .
जवाब देंहटाएंदूर से ही लगता है कि ये अंग्रेज़ होंगे तो हमसे ज़्यादा अच्छे होंगे लेकिन पास जाओं तो अंदर से वही लालच, नफ़रत और इंतक़ाम उनके अंदर भी मिलेगा जो हिंदुस्तानियों में है।
सारे झगड़े-फ़साद और ख़ून ख़राबे इसी बात की वजह से हैं कि आदमी अपने लिए हर तरह से सुरक्षा चाहता है और दूसरों को वही चीज़ देने के लिए तैयार नहीं है।
आप 'ब्लॉगर्स मीट वीकली 3‘ में तशरीफ़ लाए होते तो उस मीटिंग के पहले और बिल्कुल आखि़री लेख देखकर इन समस्याओं से मुक्ति का सच्चा समाधान भी जान लेते।
आप अब भी देख सकते हैं
‘ब्लॉगर्स मीट वीकली 3‘
बहुत बहरी बातें कह दी आपने।
जवाब देंहटाएं------
डायनासोरों की दुनिया
ये है ब्लॉग समीक्षा की 28वीं कड़ी!
आस - निरास में ही जीवन बीते !
जवाब देंहटाएंअच्छी लगी कविता!
bahut kaam ki bat kah di aapne
जवाब देंहटाएंachhi lagi rachna
मन्जर गर नहीं सुखदाई
जवाब देंहटाएंबातेँ छोटी भी सुख की परिभाषा
दुखती रगें भी तो दवाई
साथी कभी , है प्रेरणा निराशा
Kya gazab baat kah deteen hain aap!
बहुत अच्छी रचना...
जवाब देंहटाएंस्वतन्त्रता दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं.