बुधवार, 16 जून 2010

ईंट-गारे से छत नहीं होती

आज फिर अखबार में पढ़ा ...ऑनर किलिंग ...एक और बेटी भेँट चढ़ गई...
जाने वाली की नजर से ...
घर के बाहर तो छत नहीं होती
घर के अन्दर ही मेरी छत छीनी क्यों कर ?
मेरे सिर पर जो लहराता था बादल बन कर
उसी बादल की नमी सोखी किसने
बिजली बन कर मेरी साँसों की गति रोकी किसने
मेरी छत की मजबूती में छेद हुए
ममता का आँचल भी न महफूज़ हुआ
पराये घर में मैं पलती रही
मेरे अपनों में कोई मेरा सगा न हुआ
जिन्दगी सबको प्यारी है
मेरी साँसों से मेरे माली को ऐतराज़ हुआ
मेरी छत के नीचे , किसकी दुनिया है अन्धेरी
और कौन गुनहगार हुआ
ईंट-गारे से छत नहीं होती
प्यार का चमकता रँग न मेरी छत का नसीब हुआ !

4 टिप्‍पणियां:

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